Banda Bairagi: हिन्दुओं और सिखों के शौर्य गाथाओं के बारे में लिखा जाय तो इतिहास की किताबें भर जाएंगी. लेकिन इनकी गाथाएं कम नहीं होंगी. यह विडम्बना ही है कि बच्चों के पाठ्य पुस्तकों में आज भी बहुत से वीरों का जिक्र नहीं मिलता. इन्हीं वीरों में से एक हैं, ‘लक्ष्मण दास’. जिन्होंने लगभग दो दशक ‘माधव सिंह बैरागी’ के रूप में बिताया. इन्होने 15 वर्ष की उम्र में सन्यास लेने के बाद गोदावरी नदी के किनारे स्थित नांदेड में उन्होंने अपना आश्रम बनाया.
अक्टूबर 1670 में जन्मे लक्ष्मण दास को ‘बंदा सिंह बहादुर’ नाम खालसा में शामिल होने के बाद मिला. गुरु गोविन्द सिंह ने इनका नाम ‘गुरुबक्श सिंह’ रखा था. सन् 1708 में गुरु गोविंद सिंह ने बंदा सिंह बहादुर के आश्रम जाकर उनसे मुलाकात की थी. जिसके बाद बंदा सिंह बहादुर उनके शिष्य बन गए. खालसा में आते-आते ही बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब के पटियाला में स्थित मुगलों की प्रांतीय राजधानी समाना पर नियंत्रण स्थापित कर इस्लामी आक्रांताओं में हड़कंप मचा दिया.
जब बैरागी बन गए बंदा सिंह बहादुर
बंदा सिंह बहादुर के जीवन के बारे में हम बात करेंगे, लेकिन मुग़ल बादशाह फर्रुख सियर के राज में किस तरह उनकी हत्या की गई और सिखों का भयंकर कत्लेआम हुआ, उसके बारे में विस्तृत चर्चा आवश्यक है. बंदा सिंह बहादुर को जब मुगलों ने पकड़ लिया, तब उन्हें बाँध कर दिल्ली लाया गया. गुरदास नांगल के युद्ध में उन्होंने मुगलों से लोहा लिया था. लेकिन, उनके चमत्कार और पराक्रम के बारे में मुगलों ने इतना सुन रखा था कि उन्हें डर था कि कहीं रास्ते में वो भाग न जाएँ.
एक मुगल अधिकारी ने तो यहाँ तक कहा कि वो खुद को उनके साथ ही रास्ते भर बाँध कर जाना चाहता है, ताकि जैसे ही वो भागें वो उनके शरीर में खंजर घुसा सके. उनके पाँव में बेड़ियाँ लगी हुई थीं. उनके गले में एक रिंग फँसाया गया था, उनके हाथ जंजीरों से बाँध दिए गए थे और उन्हें एक लोहे के पिंजरे में डाल दिया गया था. लोहे के पिंजरे से उन्हें 4 जगह बाँधा गया था. हाथी पर वो पिंजरा रखा हुआ था और उनके दोनों तरफ दो मुग़ल फौजियों को उनके साथ ही बाँधा गया था.


उनके साथ-साथ गाजे-बाजे के साथ एक मुग़ल दल चल रहा था. साथ ही फौजियों ने अपने-अपने भाले पर मृत सिखों के कटे हुए सिर लटका रखे थे, जिन्हें वो प्रदर्शित करते हुए चल रहे थे. सबसे पीछे मुगलों के अमीर, फौजदार और अन्य राजा लोग चल रहे थे. 780 अधमरे सिख बंदियों, 2000 कटे हुए सिर और 700 मालगाड़ियों में भरे हुए सिखों के कटे हुए सिर लेकर अब्दुल अस समद खान लाहौर की शाही सड़क में घुसा. इस जुलूस को देखने के लिए सड़क के दोनों तरफ एक बड़ी भीड़ थी.
एक हिंदी वेबसाइट की खबर के अनुसार, अधिकतर कटे हुए सिरों से खून टपक रहे थे. उसने अपने बेटे ज़करिया खान और अमिन खान के बेटे कमरुद्दीन खान के साथ उन बंदियों को दिल्ली भेजा, क्योंकि उसे मुग़ल बादशाह की तरफ से वहीं रहने का आदेश आया था. ज़करिया खान को लगा था कि 200 युद्धबंदी बादशाह के सामने छोटी संख्या है, इसीलिए उसने पूरे पंजाब में सिखों के ‘शिकार’ का आदेश जारी किया. निर्दोष सिखों को पकड़-पकड़ कर लाया जाता और उनका सिर कलम कर दिया जाता.
इस तरह सिखों के कलम किए हुए सिरों से 700 मालगाड़ियों को भर दिया गया. सरहिंद में बंदा सिंह बहादुर और इन युद्धबंदियों को घुमाया गया, जहाँ सड़क के दोनों किनारे खड़े होकर मुस्लिम भीड़ उन्हें गंदी-गंदी गालियाँ दे रही थीं. जबकि सिख बंदी इस दौरान गुरु ग्रन्थ साहिब की पंक्तियाँ पढ़ रहे थे. जिस तरह मराठा सम्राट संभाजी का अपमान किया गया था, ठीक उसी तरह चीजें यहाँ भी हुईं. दिल्ली में बादशाह के सामने मुग़ल सरदारों ने अपनी क्रूरता की मिसाल पेश कर वाहवाही लूटी.
सबसे पहले बादशाह फर्रुख सियर के सामने 2000 सिखों के कटे हुए सिर बाँसों पर लटका कर पेश किए गए. उन सिखों के लंबे-लंबे बाल हवा से लहरा रहे थे. उसके बाद एक मरी हुई बिल्ली को पेश कर के बादशाह को बताया गया कि गुरदास नांगल के आसपास रहने वाले चौपाये जानवरों तक को नहीं बख्शा गया है. फिर बंदा सिंह बहादुर को पेश किया गया, जिन्हें जानबूझ कर मजाक बनाने के लिए सोने से जड़ी पगड़ी पहनाई गई थी.
इसके पीछे कई ऊँटों पर बाँध कर लाए गए सिख बंदियों को पेश किया गया. प्रमुख सिखों को भेड़ की खाल पहनाई गई थी, ताकि वो भालू की तरह लगें. सिख बंदियों के हाथ एक लकड़ी के साथ ठोक दिए गए थे. इस दौरान मुस्लिम भीड़ लगातार उन पर हँस रही थी. उन्होंने इसे ‘तमाशा’ नाम दिया था. मिर्जा मुहम्मद हैरसी नाम के एक व्यक्ति ने लिखा है कि कैसे मुस्लिम भीड़ ख़ुशी से नाच-गा रही थी. उसने लिखा है कि फिर भी सिख खुश थे और प्रार्थना कर रहे थे, कह रहे थे कि ये सब सर्वशक्तिमान ईश्वर ने ही लिखा है.
सिखों ने जवाब दिया कि भूख-प्यास और रसद न मिलने के कारण उनका ये हाल हुआ, वरना इससे पहले इतने युद्धों में उनकी क्षमताओं को लोग देख ही चुके हैं. बंदा सिंह बहादुर की पत्नी और उनके 4 साल के बेटे अजय सिंह के अलावा बच्चे की देखभाल करने वाली महिला को भी हरम में भेजा गया. लगभग 694 सिखों को हत्या के लिए सरबराह खान कोतवाल को सौंप दिया गया. मुग़ल सरदारों को उनकी कायरता का जम कर बादशाह ने इनाम दिया.
सिखों के पास संसाधन नहीं थे, ऐसे में मुगलों को आश्चर्य हो रहा था कि कैसे उन्होंने इतनी बड़ी इस्लामी फ़ौज से लगातार टक्कर लिया. 5 मार्च, 1716 को दिल्ली में सिखों का कत्लेआम शुरू हुआ. हर दिन 100 सिखों को पकड़ कर लाया जाता और उनका सिर कलम कर दिया जाता. कत्लगाह में जल्लाद अपनी तलवारों की धार तेज़ कर के रखते, सिखों को इस्लाम अपना कर मुस्लिम बनने को कहा जाता, लेकिन एक ने भी गुरु की राह से अलग जाना स्वीकार नहीं किया.


एक सप्ताह तक ये कत्लेआम चलता रहा. इसके गवाह रहे लोगों ने लिखा है कि सिख बलिदान देने के लिए एक-दूसरे से आगे जाने की होड़ में रहते थे और अंत समय तक उनके चेहरे पर उनकी मजबूती झलकती थी. सिर काट-काट कर उनके शरीरों को फेंक कर एक ढेर बनाया जाता और रात को उनकी सिर कटी हुई लाशों को पेड़ से टाँग दिया जाता था. इस दौरान एक विधवा की भी कहानी आती है, जिसका बेटा बंदियों में शामिल था.
उस युवक की अभी-अभी शादी हुई थी और हाथ के कंगन तक नहीं उतरे थे. माँ ने किसी तरह झूठ बोल कर बादशाह फर्रुख सियर से उसे छुड़ाने का आदेश ले लिया. उन्होंने कहा कि उनका बेटा गुरु का अनुयायी नहीं है और सिखों का बंदी था. लेकिन, बेटे ने इस आदेश के बावजूद अपनी माँ पर झूठ बोलने का आरोप लगाया और गुरु से धोखे की जगह बलिदान को चुना. उसने जल्लाद के सामने अपना सिर झुकाया और एक झटके में सिर कलम हो गया.
4 साल के बेटे का दिल निकालकर मुंह में कपड़ा ठूंस दिया
इस दौरान 3 महीने तक बंदा सिंह बहादुर को प्रताड़ित किया जाता रहा. बंदा सिंह बहादुर और उनके साथियों को हत्या वाले दिन किले से बाहर लाया गया. इसके बाद सिख बंदियों को बहादुर शाह I की कब्र के साथ परेड कराया गया. बंदा सिंह बहादुर को अन्य कैदियों की तरह इस्लाम और मौत में से कोई एक चुनने को कहा गया, लेकिन गुरु गोविंद सिंह के चुने हुए सिपाही ने मृत्यु को चुना. इसके बाद जो हुआ, वो शरीर और आत्मा को कँपाने वाला है.