इन राजाओं को लोकतंत्र की राजनीति में नहीं मिली इंट्री, राजशाही के आगे झुके नहीं, इसलिए आज भी कहते हैं “ज्यादा नवाब न बनो” पढ़िए, पूरी कहानी

राजतंत्र को लोकतंत्र बने एक लम्बा अरसा बीत गया है. राजपरिवार तो अभी भी हैं. जो राजपरिवार लोकतांत्रिक व्यवस्था में आ गए, वे आज सियासत में हैं. बाकि के बस राजघराने वाले नाम के ही रह गए. अब सवाल यह उठता है कि क्या इनलोगों के लिए राजतन्त्र ही सब कुछ था? इन्होने कभी चुनाव लड़ने का नहीं सोचा होगा ? तो इसका जवाब एक शब्द में है – ‘नहीं’.
दरअसल इन राजघराने के लोगों के लिए वोट कौन मांगता? इन्होने खुद अपने लिए वोट मांगना उचित नहीं समझा. इन्हें अपने लिए दूसरों से वोट मांगना नाक का सवाल था. ये झुकना नहीं जानते थे. इसलिए इन राजघरानों की रियासतें केवल किस्से-कहानियों तक सिमट कर रह गई हैं.
ज्यादा नवाब न बनो
अवध घराने का यह मशहूर कहावत दरअसल, नवाब वाजिद अली शाह के बारे में है. बात 1857 गदर के समय की है. अंग्रेजों ने अवध पर कब्जे के लिए लखनऊ के महल पर हमला किया. उस समय नवाब भाग नहीं पाए. नतीजा उन्हें बंदी बना लिया गया. अंग्रेजी हुकुमत ने जब उनसे पूछा कि आखिर वे भागे क्यों नहीं ? तो, नवाब ने जो जवाब दिया. उसे सुनकर सब दंग रह गए.
दरअसल, नवाब ने बताया कि जब सिपाही उन्हें पकड़ने के लिए आ ही रहे थे कि सारे नौकर महल छोड़कर भाग चुके थे. उन्हें जूती पहनाने वाला कोई नहीं था. उस समय शाही हुकुमत खुद से जूती पहनना अपनी शान के खिलाफ समझती थी. यह किस्सा यह बताने के लिए काफी है कि राजतंत्र की रियासतें अपनी शान-ओ-शौकत के चलते लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बन पाईं.
विवादों के लिए मशहूर बनारस घराना
अब अवध से होते हुए पूर्वांचल का दिल कहे जाने वाले बनारस पहुंचते हैं. अपने गौरवशाली इतिहास और अपनी परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध बनारस का राजघराना विवादों में इस कदर उलझा कि वह लोकतांत्रिक राजनीति में कदम ही नहीं रख सका. बनारस रियासत के किस्सों से ज्यादा इसके विवाद मशहूर हैं. राजघराने के परिवार के सदस्य आए दिन कोर्ट-कचहरी से लेकर पुलिस थानों तक के चक्कर काट रहे हैं. एक ओर कुंवर अनंत नारायण सिंह हैं, तो दूसरी ओर उनकी तीन बहनें. पुलिस रिपोर्ट के अनुसार अनबन की वजह संपत्ति का बंटवारा है.


300 साल का पुराना नवाब परिवार का इतिहास
लखनऊ के नवाबों का इतिहास भी 300 से अधिक वर्षों से पुराना है. अंग्रेजी हुकूमत से पहले यह नवाब अवध के राजा हुआ करते थे. अंग्रेजों की हुकूमत आने के बाद भी सत्ता उन्हीं के पास थी. उन्होंने अंग्रेजों के अधीन रहना स्वीकारा था. लकिन आजादी के बाद से ये धीरे – धीरे सत्ता और राजनीति से दूर होते गए. पिछले छह दशकों में केवल एक ही परिवार सक्रिय राजनीति में भागीदारी लेता है वह है, “बुक्कल नवाब का परिवार”.

लखनऊ की राजनीति में पहला चुनाव बुक्कल नवाब के पिता नवाब मिर्जा मोहम्मद उर्फ दारा नवाब ने लड़ा था. 60 के दशक के करीब उन्होंने सैयद अली के खिलाफ चुनाव लड़ा था. उसके बाद बुक्कल नवाब पिछले 43 साल से राजनीति में सक्रिय हैं. उनके बेटे बुक्कल नवाब और अब पोते फैसल नवाब भी सक्रिय राजनीति में हैं. फैसल नवाब मौजूदा समय में नगर निगम के पार्षद हैं.
दिलीपपुर राजघराने के हालात नाजुक
प्रतापगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित दिलीपपुर राजघराने की लड़ाई भी बनारस राजघराने की तरह सम्पत्ति को लेकर ही है. इस किले की सियासत केवल ब्लॉक प्रमुख, बीडीसी एवं प्रधान तक ही सिमट कर रह गई है. कभी राजा अमरपाल सिंह विधान परिषद सदस्य बने थे. उनके बाद सियासत से परिवार के लोग दूर रहे. तीन बार राजा सूरज सिंह व रानी सुषमा सिंह दिलीपपुर की प्रधान रहीं. दिलीपपुर राजघराने की राजकुमारी भावना सिंह विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं लेकिन पारिवारिक हालात को देखते हुए समय का इंतजार कर रही हैं.
राजनीति में असफल रहे अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र
अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र ने साल 2009 में बसपा के टिकट पर फैजाबाद संसदीय सीट से चुनाव लड़ा. लेकिन, वे कांग्रेस के निर्मल से हार गए, जिसके बाद राजनीति से दूरी बना ली.

इलाहाबाद का मांडा राजघराना…वीपी सिंह के बाद कोई आगे नहीं आया
राजा मांडा के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भूदान आंदोलन में हजारों बीघा जमीन दान देकर इसको साबित भी किया था कि सामाजिक सरोकार से भी दिल से जुड़े थे. देश के प्रधानमंत्री पद का दायित्व तक संभाला था. हालांकि, कभी राजनीतिक गतिविधियों की केंद्र रही राजा मांडा की कोठी पर अब सन्नाटा पसरा रहता है. अब उनके खानदान से कोई भी चुनाव नहीं लड़ता.
