भगवान उस हृदय में निवास करते हैं जिसके मन में किसी के प्रति बैर भाव नहीं है। कोई लालच या द्वेष नहीं है।
संत रविदास
- रविदास ने सामाजिक कुरीतियों का किया था विरोध
- मीराबाई को प्रभुभक्ति की दी थी प्रेरणा
- साम्प्रदायिकता को गहरी चोट
- समाज को एकता के सूत्र में बांधने का किया था काम
प्रति वर्ष माघ माह के पूर्णिमा तिथि के दिन संत रविदास जयंती (Sant Ravidas Jayanti) मनाई जाती है। इस बार यह तिथि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार, 5 फरवरी को पड़ रही है। इस दिन संत रविदास के शिष्य बड़ी संख्या में उपस्थित होकर भजन-कीर्तन करते हैं, रैलियां निकालते हैं और उनके बताए रास्ते पर चलने का प्राण करते हैं।
14वीं सदी के भक्तियुग में जन्मे रविदास जी ने काशी के मंडुआडीह (तब गोवर्धनपुर) नामक स्थान पर रघु व करमाबाई के पुत्र में जन्म लिया था। वैसे तो इनके जन्म के संबंध में विद्वानों के कई मत हैं, लेकिन बहुमत के आधार पर इनका जन्म 1398 ई० में हुआ था।
रविवार के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम रविदास पड़ा। जिस समय इनका जन्म हुआ, किसी ने सोचा भी न होगा कि आगे चलकर यही बाक समाज की दशा व दिशा को बदल देगा। पेशे से चर्मकार रविदास ने अपने आजीविका को धन कमाने का साधन न बनाकर संत सेवा का माध्यम बना लिया। संत रविदास को कुछ लोग रैदास नाम से भी बुलाते हैं। संत ने स्वयं कहा था, ‘नाम में क्या रखा है, नाम तो पुकारने मात्र का साधन बस है।’


जातिगत भेदभाव किया दूर
संत रविदास ईश्वर भक्ति पर पूर्ण विश्वास तो रखते ही थे, साथ ही उन्होंने कर्म को भी प्रधानता दी है। वे बड़े परोपकारी थे। उन्होंने समाज की बिगड़ती वर्ण व्यवस्था को एक नया आयाम दिया। उन्होंने समाज में जातिगत भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता पर बल दिया और भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य किया। संत रविदास की शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
कबीर और रविदास के गुरु एक
संत रविदास और कबीर दास समकालीन माने जाते हैं। जिस प्रकार कबीर ने समाज से कुरीतियों को समाप्त करने का कार्य किया। ठीक वैसे ही रविदास ने भी सामाजिक बुराइयों को की जड़ों को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। माना जाता है कि कबीर और रविदास ने एक ही गुरु से शिक्षा ली थी। स्वयं कबीरदास ने बीजक में ‘संतन में रविदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी है। कबीर की रचनाओं के संग्रह ‘बीजक’ में उन्होंने कहा है-
‘काशी में परगट भये, रामानंद चेताये’
कबीर दास
मीराबाई को कृष्ण भक्ति की दी प्रेरणा
संत रविदास ने अपना जीवन प्रभु भक्ति और सत्संग में बिताया। वे बचपन से ही ईश्वर की भक्ति में लीं रहते थे। संत रामानंद वैष्णव भक्तिधारा के महान संत थे। रविदास की प्रतिभा को देखकर स्वामी रामानंद ने उन्हें अपना शिष्य बनाया। मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्त मीराबाई ने संत रविदास से शिक्षा ली थी। कहा जाता है कि मीराबाई को संत रविदास से प्रेरणा मिली थी। जिसके बाद उन्होंने भक्ति के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया। मीराबाई के एक पड़ में उनके गुरु का जिक्र मिलता है –
गुरु मिलिआ संत गुरू रविदास जी।
दीन्हीं ज्ञान की गुटकी।।
मीरा सत गुरु देव की करै वंदा आस।
जिन चेतन आतम कहया धन भगवन रैदास।।
मीराबाई


रविदास जी का जन्म चर्मकार कुल में हुआ था। स्वयं रविदास भी अपनि जीविकापार्जन के लिए चर्मकार का काम करते थे। उन्होंने कभी जात-पात का अंतर नहीं किया। जो भी संत या फ़कीर उनके द्वार आता, वह बिना पैसे लिए उन्हें हाथों से बने जूते पहनाते। वे हर काम को पूरे निष्ठा और लगन से करते थे। फिर चाहे वह जूते बनाना हो, या ईश्वर की भक्ति। उनका कहना था कि किसी भी काम को यदि शुद्ध निष्ठा व मन से किया जाय, तो उसका फल अवश्य मिलता है।
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संत रविदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में जागृति लाने की ठानी थी। उन्होंने समाज में जातिगत भेदभाव को दूर करके सामाजिक एकता पर बल दिया। साथ ही मानवतावादी मूल्यों की नींव रखी। इतना ही नहीं, वे एक ऐसे समाज की कल्पना भी करते हैं, जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुःख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो। रविदास जी ने सीधे-सीधे लिखा है-
रैदास जन्म के कारने न होत न कोई नीच,
नर कूं नीच कर डारि है, ओच्चे करम की नीच।।
संत रविदास
अर्थात्, कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है। जो व्यक्ति गलत काम करता है, वह नीच होता है। कोई भी व्यक्ति जन्म से कभी नीच नहीं होता।
संत तेरे कितने नाम
रविदास जी को भारत में कई नामों से जाना जाता है। भक्त अपनी सुविधानुसार, उन्हें अलग-अलग नामों से बुलाते हैं। रविदास जी को पंजाब में ‘रविदाजी’ कहा जाता है। वहीँ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें ‘रैदास’ के नाम से लोग बुलाते हैं। गुजरात व महाराष्ट्र में उन्हें ‘रोहिदास’ और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ के नाम से जानते हैं। कई पुरानी पांडूलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है।
इस्लामीकरण को दी गहरी चोट
14वीं शताब्दी, एक ऐसा समय जब मुगलिया सल्तनत का झंडा बुलंद था। देश में चारों ओर धर्म, जातिवाद, छूआछूत, भेदभाव, अन्धविश्वास अपने चरम पर था। गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, अपने चरम पर था। इस समय सबसे ज्यादा धर्म परिवर्तन प्रचलन में था। इस्लामी कट्टरपंथी हिन्दुओं को अधिक से अधिक संख्या में जबरन मुस्लिम धर्म में बदलना चाह रहे थे। ऐसे में रविदास किसी देवदूत से कम नहीं थे। जब उन्होंने इन कुरीतियों और सामाजिक अपराधों को दूर करने का जिम्मा उठाया।
इस्लाम अपनाने के लिए बनाया दबाव
संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी। जिसके चलते उनके लाखों भक्त हो चुके थे। जिसमें हर जाति के लोग शामिल थे। यह सब देखकर एक परिद्ध मुस्लिम ‘सदना पीर’ उनको मुसलमान बनाने आया था। उसका सोचना था कि यदि रविदास मुसलमान हो जाते हैं, तो उनके लाखों भक्त भी मुस्लिम हो जाएंगे। ऐसा सोचकर उनपर हर प्रकार से दबाव बनाया गया था। लेकिन संत रविदास अपने संकल्प पथ पर अडिग रहे। वे एक संत थे, जिसे हिन्दू या मुसलमान किसी से मतलब नहीं था, उन्हें बस मानवता से मतलब था।
साहित्यिक भाषा
भक्तिकाल में अधिकतर कवियों व संतों ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया था। संत रविदास ने अपनी कविताओं के लिए जनसाधारण की ब्रजभाषा का ही प्रयोग किया है। साथ ही इसें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और यानि उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदास जी के लगभग चालीस पद सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब; में शामिल किए गए हैं।
वाराणसी से चितौड़ का सफर
चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं। चित्तौड़ में ही उनकी छतरी बनी हुई है। माना जाता है कि यहीं से वे अपने अंतिम यात्रा पर निकल गए थे। हालांकि इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इनके कुछ शिष्य इनके देहावसान की बात 1540 ई० में वाराणसी में भी बताते हैं।
वाराणसी में है भव्य मंदिर
वाराणसी के सिर गोवर्धनपुर और राजघाट में इनका भव्य मंदिर है। जहां सभी जाति व धर्म के लोग दर्शनों के लिए जाते हैं। वाराणसी में ही श्री गुरु रविदास पार्क भी है, जो नगवा में उनके स्मृति के रूप में बनाया गया है। संत रविदास की स्मृति में राजघाट गंगा तट पर बना गुरु रविदास मंदिर सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है। इस मंदिर में रोजाना भारी संख्या में श्रद्धालु आकर गुरु की चरणों में अपना मत्था टेक कर खुद को धन्य समझते हैं। इनमें देश-विदेश के भी अनुयायी शामिल रहते हैं। गुरु रविदास मंदिर की स्थापना 12 अप्रैल 1979 में देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री स्व। जगजीवन राम ने किया था। स्व। जगजीवन राम गुरु रविदास के अनन्य भक्त व अनुयायी थे।


इस मंदिर का उद्देश्य गुरु रविदास के संदेश व उनके उपदेशों को भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रचार प्रसार करना था। उनका मानना था कि वर्ण व जाति विहीन समाज का निर्माण करना। उनका मुख्य उद्देश्य समता व समरसता का संदेश देना था। संत रविदास ने गुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद की। बाबू जगजीवन राम का निधन 6 जुलाई 1986 को हो गया। इसके बाद उनकी पुत्री पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार व उनके दामाद मंजुल कुमार ने इस मंदिर के अधूरे कार्य को पूरा किया। आज उन्हीं की देखरेख में यह मंदिर चल रहा है। मंदिर के गर्भगृह में संत रविदास की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है।