प्रयागराज (Parayagraj) जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर मेजारोड नाम का एक कस्बा पड़ता है. यहां चौराहे से जब आप दक्षिण साइड में कोहड़ार घाट रोड पर आगे बढ़ेंगे तो चार किलोमीटर बाद एक गांव सिंहपुर पड़ता है. सिंहपुर गांव से लगता हुआ एक बरसैता नाला (बरसाती नदी) है. जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हुई आगे करीब 500 मीटर दूर टोंस नदी में मिल जाता है.
यह टोंस नदी दक्षिण से उत्तर की बहती है और इन्हीं दोनों नदियों के दो छोर बसा हुआ एक किला है, जिसे खैरागढ़ किला कहा जाता है. जो अपने साथ एक अनाम लेकिन भव्य इतिहास समेटे हुए है..


हालाँकि इसे किसने बनवाया यह कोई नहीं जानता. लेकिन आकार, बनावट और ऊंचाई देखने पर प्रतीत होता है, जैसे यह प्रयागराज संगम तट पर बसे इलाहाबाद के किले का कोई भाई हो.
हालाँकि दोनों में कुछ अंतर है. पहला तो यमुना किनारे बसा है जो कुछ ही दूरी पर जाकर गंगा में संगम में मिलता है तो दूसरा टोंस नदी और बरसैता नदी के संगम पर बना है.. यहाँ से टोंस आगे 10 किमी जाकर सिरसा के पास उपरौड़ा गांव में गंगा में मिलती है.


दोनों किलों के बीच की दूरी मात्र 30-32 किमी है. किवंदतियां है कि जब प्रयागराज में अकबर के किले का निर्माण हो रहा था तो उसी के साथ इसका भी निर्माण शुरू कराया गया. शर्त ये थी कि जिस किले का निर्माण पहले पूरा होगा उसे ही मुगलों की प्रांतीय राजधानी बनाया जाएगा. स्थानीय लोगों द्वारा कहा जाता है कि जिस किले का निर्माण पहले होगा वहां सूचना के लिए दीप जला दिया जाएगा.


एक दिन प्रयागराज किले में मिस्त्री की कन्नी गिर गई जिसे ढूढने के लिए वहां दीप जला दिया गया. इस तरह खैरागढ़ में सूचना पहुचती है कि प्रयागराज का किला पूरा हो गया. लिहाजा खौरागढ़ में कार्य कर रहे लोग व राजा रानी मारे शर्म के टोंस नदी में कूदकर अपनी जान दे दी और किले को अधूरा छोड़ दिया गया.


एक कहानी और भी बताई जाती है कि इस किले की रक्षा एक बहुत बड़ा अगजर करता है. कई लोगों का दावा है कि उन्होंने उसे देखा भी है. अब स्थानीय लोगों द्वारा बताई जा रही कहानी को सच भी मान लें तो यह जगह काफी पुरानी है. नदी किनारे है. पूरी तरह से नष्ट भी हो चुका है तो अजगर जैसे वन्य जीव के होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
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लेकिन यह अकबर के काल का है. यह उचित नहीं प्रतीत होता. क्योंकि जब राजा स्वयं अकबर था तो अन्य किसी राजा या रानी के होने और उनके आत्महत्या करने का सवाल ही नहीं उठता.. फिर मुगल ग्रंथों में प्रयागराज के किले का उल्लेख जरूर मिलता है, लेकिन खैरागढ़ किले का प्रयागराज किले से आपसी सम्बन्ध का कोई ऐतिहासिक स्त्रोत नहीं मिलता..


वास्तव में यह अब कोई ठोस आधार पर यह नहीं जानता कि खैरागढ़ का किला किसने बनवाया. ग्रामीण अवश्य ऊपर की किवंदिया बताते हैं. पर यह नहीं कहते कि अकबर आदि ने शुरू किया था.
इस तरह फिर यही सवाल उठता है कि आखिर इसको किसने बनवाया तो अभी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता. हां मुझे 400 पेज की इलाहाबाद गजेटियर पढ़ने पर पता चलता है कि खैरागढ़ परगना कभी पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह (राजा मांडा) के पूर्वजों की रियासत का हिस्सा था.
इनके पूर्वज गुड्डन देव 1542 में मांडा रियासत की स्थापना किया था. यह वह काल है. जब बाबर का शासन खत्म हो चुका था और हुमायूं भी पलायन का जीवन जी रहा था. मूलतः इस दौर में शेरशाह सूरी शासन कर रहा था. दूसरी ओर इलाहाबाद किले का निर्माण कार्य शुरू होने की बात अकबर द्वारा 1583 ईसवी की बताई जाती है.


प्रयागराज किले का निर्माण किसने कराया इसपर भी काफी विवाद है. कई लोगों का कहना है कि यह किला सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था तो कुछ लोगों का कहना है कि सम्राट अशोक के कई सौ वर्षों बाद समुद्रगुप्त ने इसका रेनोवेशन करवाया था. बाद में इसे कब्जे में लेकर अपने हिसाब से विस्तार दिया.
खैर, यहां एक बात और ध्यान देने वाली है कि राजा मांडा रियासत की स्थापना करने वाले गुड्डन देव और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह मूलतः कनौज के राजा जयचन्द यानि पृथ्वीराज चौहान के ससुर के वंशज थे, जिनका 11वीं-12वीं शती में शासन कनौज से बनारस तक था. कई ऐतिहासिक स्त्रोतों में जयचन्द को बनारस का राजा भी कहा गया है. खैरागढ़ से बनारस की दूरी करीब 80-90 किमी है.


गजेटियर यह भी कहता है कि मांडा रियासत के राजा गुड्डन देव या उनके भाई कुंदन देव या भारती चंद ने कोंहड़ार के निकट सबसे पहले एक घर बनाया था. यह खैरागढ़ का किला कोंहड़ार से 10 किमी दूर है. जबकि मांडा करीब 30 किमी पड़ जाता है.
उसके बाद इनके वंशजो ने बटवारे के बाद मिर्जापुर के कंतित, प्रयागराज के बड़ोखर व डैया और प्रयागराज के मांडा में अपना ठिकाना बनाया. वास्तव में गजेटियर यह स्पष्ट नहीं करता है कोंहड़ार के निकट वाली जगह खैरागढ़ ही है. इसलिए हम स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कह सकते हैं. लेकिन यह क्षेत्र राजा मांडा की रियासत के खैरागढ़ परगना का हिस्सा था और यह गुड्डन देव के साशन का क्षेत्र था. यह स्पष्ट है.


इस जगह का नाम मूलतः सिंहपुर था और आज भी बगल में सिंहपुर कला गांव है. तो इसे किसी राजपूत राजा ने बनवाया होगा. यह अनुमान लगाया जा सकता है. फिर खैरागढ़ नाम स्वयं राजपुताना नाम है, इसलिए इस्लामिल स्ट्रक्चर होने या इससे किसी तरह के सम्बन्ध होने का सवाल ही नहीं उठता.
इसके अलावा कुछ जैन धर्म से सम्बंधित लेख पढ़ने पर पता चलता है कि खैरागढ़ के पास में ही 12वीं शती का एक सिर विहीन तीर्थंकर की मूर्ति पाई गई है. तो सम्भव है. यह किला हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना हो. या इसका सम्बंध भीटा सभ्यता की तरह जैन, बौद्ध और सनातन तीनों से सामान रूप से रहा हो.
हालांकि हम इस किले को लेकर अभी भी कुछ नहीं कह सकते हैं कि इसे किसने बनवाया था.
मेरी खोज जारी है.
अंत मे – अब इस किले में ऐसा कुछ रह नहीं गया है कि इसका फिर से रिनिवेशन कराया जा सके. यह पूरी तरह से जमीदोंज हो चुका है. सरकार इसकी खुदाई करवाकर यहां छिपे रहस्यों और इसका इतिहास पता करने का प्रयास अवश्य कर सकती है.
रिपोर्ट – दीपक पाण्डेय