एक या दो बार नहीं इस्लामी आक्रांताओं ने कई बार तोड़ा काशी विश्वनाथ मंदिर, जानिए इसका पूरा इतिहास

by Admin
0 comment

लोगों ने मुग़ल आक्रांता औरंगजेब के डर से मंदिरों को अपने घरों में छुपा दिया था. जिसके बाद यहां के घरों में भी मंदिर होने लगे. विश्वनाथ कॉरीडोर बनते समय घरों के टूटने पर ऐसे ही कुछ मंदिरों के अवशेष सामने आए. पुरातत्वविदों के रिसर्च से पता चला कि इन मंदिरों में कई का इतिहास 5000 वर्ष पुराना तो कई मूर्तियाँ मौर्यकालीन साम्राज्य के समय की हैं. हालांकि इन मूर्तियों को रिसर्च के बाद श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में स्थान दिया गया.

काशी के कण-कण में देवाधिदेव महादेव का वास है. यहां के रोम-रोम में शिव बसे हैं. सुबह सोकर उठते ही मंदिर की घंटियों और वहां पर लग रहे ‘हर हर महादेव’ के जयकारे से शरीर में नई ऊर्जा आ जाती है.
वैसे तो काशी में कई भोलेनाथ के कई मंदिर हैं. लेकिन काशी विश्वनाथ धाम की महिमा अपार है. इतिहास के पन्नों को खंगालने पर पता चलता है कि कभी काशी में लाखों की संख्या में मंदिर हुआ करते थे. अयोध्या की तर्ज पर काशी में भी घर-घर मंदिर हुआ करते थे.


इतिहासकारों के अनुसार, लोगों ने मुग़ल आक्रांता औरंगजेब के डर से मंदिरों को अपने घरों में छुपा दिया था. जिसके बाद यहां के घरों में भी मंदिर होने लगे. विश्वनाथ कॉरीडोर बनते समय घरों के टूटने पर ऐसे ही कुछ मंदिरों के अवशेष सामने आए. पुरातत्वविदों के रिसर्च से पता चला कि इन मंदिरों में कई का इतिहास 5000 वर्ष पुराना तो कई मूर्तियाँ मौर्यकालीन साम्राज्य के समय की हैं. हालांकि इन मूर्तियों को रिसर्च के बाद श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में स्थान दिया गया.

यह भी पढ़ें: Swaminarayan Akshardham Temple : इस मंदिर में दिखती है दस हज़ार वर्ष पुरानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की झलक

स्थापना

काशी में काशी विश्वनाथ मंदिर की स्थापना कब से है, इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है. हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, इस मंदिर का द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख स्थान है. इसकी स्थापना अनादिकाल में भगवान शंकर ने स्वयं की थी. यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है, इसलिए आदि लिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है. इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है. ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरिश्चंद्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था. उसे ही 1194 में मोहम्मद गोरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था.

यह भी पढ़ें: प्रयागराज के इस मंदिर में मनकामेश्वर व कामेश्वरी विराजते हैं एक साथ, भगवान श्री राम भी कर चुके हैं जलाभिषेक


इतिहासकारों के अनुसार, मुहम्मद गोरी के मंदिर तोड़ने के बाद इसे हिन्दू राजाओं ने फिर से बनवाया. लेकिन एक बार फिर से यह मंदिर इस्लामी आक्रांताओं के नजर में आ गया. सन् 1447 ई० में यह मंदिर जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया. पुन: सन् 1585 ई० में राजा टोडरमल की सहायता से पं० नारायण भट्ट ने फिर से यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया.

मुग़ल आक्रान्ताओं द्वारा मंदिर का ध्वस्तीकरण

समय बीता, मुगल शासनकाल आया. मुगल आक्रांताओं की नजर भी इस मंदिर पर पड़ी. सन् 1632 ई० में शाहजहां ने इस मंदिर को तोड़ने के लिए सेना भेजी, लेकिन हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण सेना विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को नहीं तोड़ सकी. लेकिन क्रोधित सेनापति ने काशी के 63 मंदिरों को ध्वस्त करा दिया.


डॉ० एस० एस० भट्ट ने अपनी किताब ‘दान हीरावली’ में इसका जिक्र किया है. उन्होंने उसमें लिखा है कि टोडरमल ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में कराया था. 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया. यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है. इस फरमान के जारी होने के बाद पूरे काशी में मुगलिया सल्तनत के खिलाफ आक्रोश उमड़ पड़ा था. तत्कालीन लेखक साकी मुस्तईद खान द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस विध्वंस का वर्णन किया गया है.

औरंगजेब के आदेश पर यहां मंदिर तोड़कर एक मस्जिद बनवाई गई, जिसका नाम ज्ञानवापी (Gyanvapi) रखा गया. 2 सितम्बर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूर्ण होने की सूचना दी गई थी. इतना ही नहीं, औरंगजेब ने हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का भी आदेश दिया था. आज यूपी के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राहमण हैं.

अहिल्याबाई होल्कर ने कराया जीर्णोद्धार

सन् 1752 से 1780 के बीच मराठों के सरदार दत्ता जी सिंधिया व मल्हारराव होल्कर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए. 7 अगस्त 1770 ई० में मंदिर को लेकर मराठाओं ने आन्दोलन छेड़ दिया. सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी कर दिया. परन्तु तब तक मुगलिया सल्तनत दिल्ली से अपना कंट्रोल खो चुकी थी. दिल्ली पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हो चुका था, जिसके कारण मंदिर का नवीनीकरण रुक गया. 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. अहिल्याबाई ने उसी जगह मंदिर का निर्माण कराया, जहां पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया था. ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी की प्रतिमा स्थपित कराई.


समय बीतने के साथ ही मंदिर क्षेत्र में बड़ा बदलाव आया. सन् 1809 में हिन्दुओं ने मंदिर परिक्षेत्र में जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्ज़ा कर लिया. इस सम्पूर्ण क्षेत्र को ज्ञानवापी कहा जाता था. इसी के आधार पर मस्जिद का नाम भी ज्ञानवापी पड़ा. 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन बनारस के तत्कालीन दंडाधिकारी मि० वाटसन ने ‘वाइस प्रेसिडेंट इन काउंसिल (WPC)’ को एक पत्र लिखकर ज्ञ्न्वापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था. लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया.

इन किताबों में मिलता है मंदिर के विध्वंस का ज़िक्र

इतिहास के झरोखों से पता चलता है कि 11 से 15वीं सदी के कालखण्डों में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं. मोहम्मद तुगलक (1325 ई०) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब ‘विविध कल्प तीर्थ’ में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था. लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मन्दिर मस्जिद में तब्दील हुए थे. 1460 में वाचस्पति ने अपनी किताब ‘तीर्थ चिंतामणि’ में वर्णन किया कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग हैं.

You may also like

Leave a Comment

cropped-tffi-png-1.png

Copyright by The Front Face India 2023. All rights reserved.